बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन से अलग होने की घोषणा 02 जून को की, इसमें कई मायने छिपे हुए हैं, उन्होंने इस गठबंधन के पीछे अपने छिपे हुए उद्देश्य को ‘ऑपरेशन बदला‘ के रूप में इस्तेमाल किया। गठबंधन तोड़ने की वही तारीख है जिस दिन 1995 में स्टेट गेस्ट हाउस कांड के चलते सपा से गठबंधन टूटने के बाद मायावती को अपमानित किया गया था और इस घटना को वह कभी भूली नहीं थीं और ठीक उसी तारीख को वह सपा से फिर एक बार गठबंधन टूटने की तारीख दोहरायी गयी।
मायावती अपने जीवन में इस तारीख को अब तक नहीं भुला पायीं थी, जिसके बाद उन्होंने 24 साल फिर सियासी दोस्ती के बहाने समाजवादी पार्टी से अपना बदला ले लिया है और समाजवादी पार्टी को इतनी चोट पहुंचायी है कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव अपने इस गठबंधन के कारण उत्तर प्रदेश की राजनीति में अलग-थलग पड़ गये हैं, वहीं घर में भी उनके इस फैसले से फूट पड़ी हुयी है और पार्टी को एक कठिन दौर से अब गुजरना पड़ रहा है। 24 साल पुरानी सियासी दुश्मनी भुलाकर बसपा सुप्रीमो मायावती सपा के साथ गठबंधन करने के लिए क्यों तैयारी हुयीं, अखिलेश यादव जल्दबाजी में यह सोच ही नहीं पाये और राजनैतिक संकेतों, चालों को समझने की बजाय मायावती के जाल में फंसते चले गये।
यही नहीं मायावती 19 विधायक होते हुए भी गठबंधन के नेता जैसा व्यवहार पूरे देश में किया, जबकि 47 विधायकों वाली पार्टी के मुखिया होते हुए भी सपा प्रमुख अखिलेश यादव को वह अपनी शर्तों पर चलाती रहीं। अखिलेश यादव मायावती के प्रति इतने समर्पित हो गये कि लगी नहीं रहा था कि प्रदेश में दूसरे नंबर की बड़ी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव रहे हों।
हर जगह समर्पण, मायावती से बार बार उनके पास मिलने जाना, मायावती कभी भी अखिलेश यादव से मिलने उनके घर नहीं गयीं। मायावती ने लोकसभा की उन सभी सीटों को सपा के खाते में डाल दिया जिन्हें वह कभी जीत नहीं पायीं थीं। अखिलेश यादव ने एक आज्ञाकारी की तरह उनके इस आदेश को भी बिना किसी शर्त के स्वीकार कर लिया। मायावती अपना हर दांव अखिलेश यादव पर चलती रहीं और अखिलेश यादव उनके मायाजाल में फंसते गये।
यही नहीं चुनावी जनसभा में खुलेआम सपा प्रमुख अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव ने मंच पर मायावती के पैर छूकर मायावती को तो गद्गद् कर दिया, लेकिन सपा के कट्टर कार्यकर्ता इससे नाराज हो गये। इस पूरे घटनाक्रम से सिर्फ अखिलेश यादव का नुकसान हुआ है, फायदे में बसपा और मायावती रही हैं। गठबंधन के चक्कर में अखिलेश साबित कुछ नहीं कर पाये, उल्टे मायावती ने उनके अपरिपक्व और अधूदर्शी होने को संकेत दे दिया।
उत्तर प्रदेश में अपने दम पर बड़ी राजनैतिक ताकत रखने वाले मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव का हर सियासी कदम एक के बाद एक पार्टी को नुकसान करता चला गया है। जिस तरह मायावती ने उन्हें अपने दांव से चारों खाने चित्त कर दिया है उससे उबरने में उन्हें काफी मेहनत करनी होगी। बसपा सुप्रीमो मायावती ने यहां तक कह दिया कि वह मैनपुरी जाकर जनसभा नहीं करती तो मुलायम सिंह अपना आखिरी चुनाव भी नहीं जीत पाते क्योंकि मुलायम सिंह यादव पहले ही कह चुके हैं कि अब वह कोई चुनाव नहीं लड़ेंगे। कन्नौज जाकर मायावती ने यह संदेश देने में कामयाबी हासिल कर ली थी कि उनको चुनौती देने वाले परिवार के लोग उनके साथ अब समर्पण की मुद्रा में खड़े हुए हैं।
दो साल पहले जिस तरह अखिलेश यादव ने अपने पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल यादव को पार्टी में हासिये पर डाल दिया और उनकी पार्टी की कट्टर दुश्मन मानी जाने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती के आगे पूरी पार्टी के साथ समर्पण कर उनका खड़े होना उनकी पार्टी के आधार वोट में बिखराव पैदा कर गया, जिसे वह अब न समझ पा रहे हैं और न समझने को तैयार हैं। मायावती ने एक कुशल राजनीतिज्ञ की तरह परिवार के बिखराव का फायदा उठाया क्योंकि मायावती जानती थी कि अखिलेश यादव मुलायम सिंह की तरह सियासत के अच्छे खिलाड़ी नहीं हैं और मौके का फायदा उठाकर उन्होंने गठबंधन किया और 24 साल पुरानी दुश्मनी को याद रखते हुए अपने कार्यकर्ताओं को यह संदेश दे दिया कि उनके सबसे बड़े सियासी दुश्मन का उत्तराधिकारी और उनका परिवार अब उनकी शरण में है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव अब अपनी ही पार्टी में अलग थलग पड़ गये हैं और मायावती अपने कार्यकर्ताओं में एक कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में उबरकर सामने आ गयी हैं।
