उत्तर प्रदेश ( Uttar Pradesh) के एटा (Etah ) जिले में जाने माने कवि ,लेखक पत्रकार संजय उपाध्याय ( Sanjay Upadhyay ) का बुधवार को निधन हो गया वह 52 वर्ष के थे। उपाध्याय की ‘संसद में घोंसले’, ‘कुत्ता अनुपात आदमी’, ‘वो लकी लड़की’, ‘नष्ट नर’, ‘दबोचिया’, ‘खुरदरे धरातल पर व्यंग्य यात्रा’ आदि दर्जन भर काव्य व्यंग लेखन प्राकशित पुस्तकें काफी चर्चित रही थी।उनके तीखे व्यंग से देश की संसद भी नहीं बच सकी थी उनकी संसद व्यंग्यात्मक कृति “संसद में घोंसले ” काफी चर्चित रहा था ।आज उनके हार्टफेल से हुये निधन से साहित्य जगत शोक की लहर है।
उर्वरा धरती एटा ( Etah ) में कवि/साहित्यकारों से समृद्ध रही है यह सर्वविदित है। पर 90 के दशक से व्यंग्य प्रधान साहित्यिक शख्सियत के रूप में साहित्यकार संजय उपाध्याय( Sanjay Upadhyay ) का नाम संजीदा लेखन के रूप में तेजी से उभरा। साहित्य की जो व्यंग्य विधा इस इलाके में उपेक्षित प्रायः सी रही, उसे उन्होंने नई ऊंचाइयां प्रदान की।
आज अचानक मात्र ५२ वर्ष की उम्र में उनके निधन की खबर ने साहित्यक चिंतकों एवं इसमे अभिरुचि रखने बाले प्रबुद्धों व गम्भीर साहित्यक सृजको को आहत एव उद्देलित कर दिया। बरबस ही पिछले 15 सालों में आये संजय उपाध्याय के बहुचर्चित प्रकाशित संग्रह दिमाग में घूम गये। अपने अभिनव व्यग्य कौशल से व्यवस्था विरोध व सामाजिक विद्रूपो पर कटाक्ष के पैने हथियारों से मुठभेड़ करने बाले संजय उपाध्याय ने दर्जन से अधिक प्रकाशित कृतियां साहित्यक समाज को सौपी हैं,जिनकी उपादेयता दूरगामी एवं बेहद प्रासंगिक लगती है।
‘संसद में घोंसले’, ‘कुत्ता अनुपात आदमी’, ‘वो लकी लड़की’, ‘नष्ट नर’, ‘दबोचिया’, ‘खुरदरे धरातल पर व्यंग्य यात्रा’ आदि प्रकशित पुस्तकीय संग्रह साहित्य जगत की धरोहर है, जिन्हें कदम कदम पर अनुभूत करने बाले जन जीवन में व्यवस्थाजन्य एवं सामाजिक विसंगतियों से समझा जा सकता है। इतनी कम उम्र में इतनी विस्तृत साहित्यिक यात्रा विरलों को ही नसीब होती है।
असल मे संजय उपाध्याय ( Sanjay Upadhyay ) व्यंग्य की मारक दक्षता से सामाजिक वर्जनाओं का बेहतरीन उपचार किया है, और जब उपचार होगा तो जलन की दर्द की सालने वाली तीव्रता होगी। यही तीव्रता साहित्यकार संजय उपाध्याय ( Sanjay Upadhyay ) को व्यंग्य से मुठभेड़ का तेवर दे गई। जैसा कि अपनी व्यंग्य प्रधान संग्रह ‘नष्ट नर’ में वो कहते हैं कि–”इसमे ऐसे नष्ट होते व्यक्ति की कविताएं हैं जो नये समाज की तलाश में नष्ट होता रहा है।”
क्या पता था नष्ट नर का रचयिता ऐसे समाज की तलाश करते और विद्रूपताओं से कटाक्ष के शस्त्र से द्वंद करते नियति के हाथों यूँ ही अचानक पराजित होकर खुद ही नष्ट हो जाएगा।
विनम्र भावांजलि।