सामाजिक सरोकारों को व्यंग्य की तीखी सुई से कुरेद कर” घुटन के दर्द की फांस “को निकालने वाली कविताएँ लिखने वाले कवि संजय उपाध्याय ( Sanjay Upadhyay ) आज अपने 56 वें जन्मदिन पर मौजूद नहीं है, लेकिन उनके तीखे व्यंग्यों का संग्रह उनकी याद दिलाता रहेगा।
इतनी काम उम्र में उन्होंने व्यंग्य प्रधान विधा में सम्रद्ध साहित्य दिया प्रसंगवश आज उस पर विमर्श करना समीचीन लगता है।साहित्य उर्वरा धरती एटा में कवि/साहित्यकारों से समृद्ध रही है यह सर्वविदित है।पर 90 के दशक से व्यंग्य प्रधान साहित्यिक शख्सियत के रूप में साहित्यकार संजय उपाध्याय के नाम संजीदा लेखन के रूप में तेजी से उभरा। साहित्य की जो व्यंग्य विधा इस इलाके में उपेक्षित प्रायः सी रही उसे नई ऊंचाइयां प्रदान की।संजय उपाध्याय ( Sanjay Upadhyay )ने साहित्यक चिंतको एवं इसमे अभिरुचि रखने बाले प्रबुद्धों ने गम्भीर साहित्यक सृजको को उद्देलित किया है।पिछले 15 सालों में आये संजय उपाध्याय के बहुचर्चित प्रकाशित संग्रह दिमाग मे घूम गये। यहां यह बता दे अपने अभिनव व्यग्य कौशल से व्यवस्था विरोध सामाजिक विद्रूपो पर कटाक्ष के पैने हथियारों से मुठभेड़ करने बाले संजय उपाध्याय ने आधा दर्जन से अधिक प्रकाशित कृतियां साहित्यक समाज को सौपी हैं,जिनकी उपादेयता दूरगामी व्यग्य प्रधान साहित्य के लिये बेहद प्रासंगिक लगती है। ‘ संसद में घोंसले’ ‘ कुत्ता अनुपात आदमी’
‘ वो लकी लड़की’ ‘नष्ट नर ‘ ‘ दबोचिया ‘ खुरदरे धरातल पर व्यंग्य यात्रा ‘ सामाजिक कटाक्ष का कारीगर(प्रकाशन में)आदि पुस्तकीय संग्रह साहित्य जगत की धरोहर है! जिन्हें कदम कदम पर रोजमर्रा की जिंदगी में और अनुभूत करने बाले जन जीवन में व्यवस्थाजन्य एवं सामाजिक विसंगतियों के बीच शिद्दत से समझा जा सकता है। इन प्रकाशित कृतियों पर देश के अनेको नामचीन समालोचकों/समीक्षकों की टिप्पणियां एवं विशद विवेचन है। संजय के पुस्तक संग्रह नामचीन साहित्य कला के मर्मग्यो ने पढ़े और उन्हें सराहा है।
असल मे साहित्यिक दृष्टि से संजय उपाध्याय व्यंग्य की मारक दक्षता से सामाजिक वर्जनाओं का बहतरीन उपचार करते थे…और जब उपचार होगा तो जलन की दर्द की सालने बाली तीव्रता होगी यही तीव्रता साहित्यकार संजय उपाध्याय ( Sanjay Upadhyay )को व्यंग्य से मुठभेड़ का तेवर दे गई है। जैसाकि अपनी व्यंग्य प्रधान संग्रह ‘ नष्ट नर ‘ में वो कहते हैं कि–इसमे ऐसे नष्ट होते व्यक्ति की कविताएं हैं जो नये समाज की तलाश में नष्ट होता रहा है।’ इस संग्रह की केंद्रीय व्यंग्य कविता का तेवर दृष्टव्य है..
‘ वजूद की हत्या के खिलाफ..!
हम न तो
गांधी के पुजारी हैं
ना ही
लेनिन के समर्थक
जो सोशलिज्म के साथ चलें
या
कम्युनिज्म के साथ मरें
हम किसी
मण्डलिज्म के मोहताज भी नही
जो प्रतीक्षित रहें
जो चंद उगले हुये
टुकड़ों की खातिर…!!!
व्यवस्थाजन्य विसंगतियों पर कटाक्ष के ऐसे तेवर देने बाले संजय की कविताएं सचमुच आंदोलित करती है मन को बसर्ते उन्हें उनकी प्रबुद्धता की उसी नाप जोख को आत्मसात कर पढ़ा जाए. क्या पता था द्वंद करते करते नष्ट नर का रचेता ऐसे समाज की तलाश करते और विद्रूपताओं से कटाक्ष के शस्त्र से द्वंद करते नियति के हाथों यूँ ही अचानक पराजित होकर खुद ही नष्ट हो जाएगा।
अब तक संजय की 7 पुस्तकें क्रमशः संसद में घोंसले, नष्ट नर,वो लकी लड़की, खुरदरे धरातल पर व्यंग्य यात्रा,दबोचिया,कुत्ता अनुपात आदमी एव आपकी कृति(सम्पादित)प्रकाशित हुई है जो साहित्य समाज की बीच है एक और अप्रकाशित पुस्तक ” सामाजिक कटाक्ष का कारीगर ” प्रकाशन में लम्बित है ।